शुक्रवार, 27 मार्च 2009

२७ मार्च, विश्व रंगमंच दिवस


२७ मार्च, एक विशेष दिन, विश्व रंगमंच दिवस को विशेष ढंग से मनाने हम जुड़े इस शुक्रवार। भारत से दो विशेष अतिथि कवियों श्रीमती निर्मला जोशी और श्री यतीन्द्र राही को लेकर पधारे आबू धाबी से कृष्ण बिहारी। गोष्ठी के प्रारंभ में प्रकाश सोनी ने विश्व रंगमंच दिवस और विश्व रंगमंच दिवस के संदेशों के विषय में जानकारी दी। साथ ही कुछ विश्व रंगमंच दिवस के संदेशों को पढ़कर सुनाया भी। 2009 का संदेश ऑगस्टो बोल का था जिसे सबीहा ने पढ़ा। 2007 का संदेश महा महिम शेख डॉ. सुल्तान बिन मुहम्मद अल कासिमी का था जिसे मिलिन्द तिखे ने पढ़ा। 2002 का संदेश गिरीश कर्नाड का था जिसे मेनका ने पढ़ा। सब संदेशों का सार यह कि रंगमंच हमें सुसंस्कृत बनाता है, यह हमारी संस्कृति की पहचान है, हमारी अभिव्यक्ति का सबसे परिष्कृत रूप है और हमारे मन को प्रफुल्लता से भर देता है। चित्र में आज के अतिथि बाएँ से निर्मला जोशी, कृष्ण बिहारी, संदीप कुमार पांडेय और यतीन्द्र राही।


डॉ.शैलेष उपाध्याय ने शरद जोशी का एक व्यंग्य पढ़ा, ऐजाज़ ने कुछ रचनाएँ प्रस्तुत कीं। कुछ नवगीत मैंने सुनाए, कृष्ण बिहारी ने अपनी कहानी सुनाई, निर्मला जी और राही जी के गीत मुक्तक और कविताएँ हुईं। कुल मिलाकर दिन कवितामय रहा। चाय हुई और बहुत सी बातचीत भी। चित्र में बाएँ से- महबूब हसन रिज़वी, मीर, शांति, मिलिन्द तिखे, ऐजाज़ और मिन्हास। जो लोग चित्र में दिखाई नहीं दे रहे हैं उनमें मेरे अतिरक्त थे- डॉ. शैलेष उपाध्याय, उमेश, दारा, मेनका, प्रकाश, सबीहा, ज़ुल्फ़ी और खुर्शीद आलम। आगामी प्रस्तुतियों के विषय में कोई बात करने का समय नहीं रहा। तो वह सब ... अगली बार...

शनिवार, 21 मार्च 2009

२० मार्च, एक घोड़ा दो सवार

राई का पहाड़ जोर-शोर से तैयारी पर है। लेकिन मई में कौन सा नाटक खेला जाना है इसका निश्चय अभी तक नहीं हुआ है... आज की चौपाल विशेषरूप से यही तय करने के लिए थी। उसके बाद एक घोड़ा तीन सवार पढ़ा जाना था और उसके बाद राई का पहाड़ का रिहर्सल होना था। गोष्ठी का समय 10:30 का था। 10:40 तक प्रकाश, कौशिक, सबीहा, मैं, दारा, उमेश पहुँच चुके थे। थोड़ी देर में अली भाई भी आ गए। बिमान दा का इंतज़ार था पर उनका फ़ोन बज नहीं रहा था। बाद में पता चला उन्होंने नया फ़ोन लिया है। पाँच मिनट के अंदर मेनका, मिन्हास, मूफ़ी और रिज़वी साहब भी आ गए। ये लोग बैठे ही थे कि बिमान दा भी आ पहुँचे। बस शुरू हो गई चौपाल...

तो मई में हम क्या करने जा रहे हैं? हमारे पास फ़िलहाल दो स्क्रिप्ट्स ही हैं। 'एक घोड़ा तीन सवार' और 'खजूर में अटका'। यों तो 'साठे का क्या करें' किया जा सकता है और 'दस्तक' तो तैयार भी हैं। इनमें से कोई त्रासदी नहीं लेकिन ये गंभीर किस्म के नाटक हैं। स्पांसर को कामदी यानी कॉमेडी चाहिए। स्पांसर नहीं तो नाटक कैसे होगा? लेकिन कॉमेडी तो सभी करते हैं फिर हममें खास क्या है? चाहे 'बड़े भाई साहब' हो या 'बल्लभपुर की रूपकथा', 'संक्रमण' या 'दस्तक' या 'चौदह' या 'जलूस' हमने ऐसे नाटक किए है जो या साहित्य की चुनी हुई कृतियों पर आधारित हैं या उनमें कुछ ख़ास है। लेकिन कुछ खास करने के लिए पैसों की दिक्कत हमेशा बनी रहती है। फ़िलहाल तो हमें 'खजूर से अटका' और 'एक घोड़ा तीन सवार' में से ही एक का चयन करना होगा। और वह भी आज क्यों कि थियेटर की बुकिंग 28 मई की है। हमें कम से कम 40 रिहर्सल तो चाहिए ही चाहिए। 'खजूर से अटका' प्रकाश पहले कर चुके हैं तो उनके दिमाग में सबकुछ साफ़ सा है, लेकिन एक बड़ी समस्या है- इसके लिए विशेष सेट चाहिए। सेट की कीमत? अंदाज लगाया गया... लगभग दो ढाई हज़ार दिरहम से कम नहीं बैठेगी। फिर?

यह विचार विमर्श चल ही रहा था कि दुबई मेल आ गई। दुबई के लोग यानी रागिनी, शांति, अश्विन, मीर। साथ में रागिनी की छोटी बिटिया। अनेक बातों के बीच नाम पूछने का समय ही नहीं रहता। पिछली एक बार शान और नीरू का बेटा भी आया था वह भी बाहर लॉन पर अकेला खेलता रहा। लगता है कि दो चार बच्चे हमेशा आएँ तो सबको दोस्त मिल जाएँगे, पर आजकल तो बच्चे भी कितने व्यस्त से रहते हैं। हाँ एक नया चेहरा भी था- शेख।

राई का पहाड़ में मेनका, सबीहा, मूफ़ी, ज़ुल्फ़ी, मीर... पूरी टीम ठीक से याद नहीं आ रही। अगली बार सबके नाम सही सही याद कर के लिखूँगी, पात्रों के नाम भी और कलाकारों के नाम भी। फोटो दुबई मेल के आने से पहले खीचे गए थे सो दुबई के सब लोग रह गए। ऊपर के चित्र में बाएँ से शेख, रिज़वी साहब, मिन्हास बिमान दा, अली भाई, मूफ़ी, उमेश और दारा। नीचे के चित्र में बाएँ से दारा, मेनका, मैं, सबीहा, कौशिक, प्रकाश। फोटो प्रवीण जी की मेहरबानी से। तो...28 मई यानी एक घोड़ा दो में से किस सवार को मिला? 'खजूर से अटका' को या 'एक घोड़ा तीन सवार को'? यह मुझे पता नहीं चल सका क्यों कि किसी के यहाँ ज़रूरी जाना था और गोष्ठी के बीच से उठना पड़ा। खैर, अगली बार...

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

१३ मार्च, रिपोर्टर पर रिपोर्ट

आज की चौपाल में होली मनाई जानी थी। सबसे पहले प्रकाश दिखाई पड़े दारा के साथ, सफेद कामदार कुर्ता, हाथ में जलेबियाँ, वाह वाह आज तो सबको जोश आना ही था। उन्होंने इकट्ठी की थी कुछ ज़बरदस्त होली सामग्री। डॉ. उपाध्याय के झोले में भी बैकअप की तरह हमेशा कुछ न कुछ होता है। आज पढ़ी गईं दीपक गुप्ता की व्यंग्य कविताएँ, इला प्रसाद की कहानी, राजेन्द्र त्यागी का व्यंग्य और मेरी कविता - रंग।

6-7 लोग ही आए थे पर हमने पाठ का कार्यक्रम शुरू कर दिया। नाटक का रिहर्सल करने वाले अक्सर देर से आते हैं। दुबई से आने वालों को भी कभी कभी देर हो जाती है। राजेन्द्र त्यागी का व्यंग्य डॉ.शैलेष उपाध्याय ने पढ़ा, दीपक गुप्ता की कंप्यूटर से संबंधित कविता मूफ़ी ने और राजनीति एक बस प्रकाश ने पढ़ी। सबीहा ने सतपाल ख़याल और संजय विद्रोही की होली से संबंधित ग़ज़लें पढ़ीं। इसके अतिरिक्त कुछ पंचदार टुकड़ों- दारा का 'मैं मुन्नी के बिना नहीं जी सकता', मूफ़ी का 'येस येस नो नो' और महबूब हसन रिज़वी का 'भाइयों और बहनों' की प्रस्तुति प्रभावशाली रही।

आज के कार्यक्रम का विशेष आकर्षण गल्फ़ एक्सप्रेस के रिपोर्टर का आगमन रहा। वे पूरे कार्यक्रम में मुख्य अतिथि की तरह छाए रहे। फोटोग्राफ़र देखकर किसका मन फ़ोटो खिंचाने का नहीं करता बस सब आ गए ग्रुप फोटो की मुद्रा में। इस बार आज की जमघट के सभी चेहरे एक साथ आ गए। न किसी की पीठ और न कोई छूटा। ऊपर की फ़ोटो, में बाएँ से- बैठे हुए प्रेस रिपोर्टर, शांति, प्रवीण, मैं, मेनका, मूफ़ी, इरफ़ान और एक नया सदस्य जिसका नाम पूछना रह गया। खड़े हुए बाएँ से- एजाज़, दारा, मिलिंद तिखे, प्रकाश, सबीहा, डॉ.उपाध्याय, रिज़वी साहब, अश्विन और मीर।

फोटो सेशन के बाद मैं चाय के लिए अंदर आई और रिपोर्टर साहब बिना चाय पिए नौ दो ग्यारह, प्रेस की ओर रवाना हो गए। कुल मिलाकर यह कि रिपोर्टर की फोटो तो मिली लेकिन उन पर कोई रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकी। चाय के बाद मिलिंद तिखे के नाटक 'राई का पहाड़' पढ़ा गया। इस माह की मंच-प्रस्तुति कुछ कारणों से निरस्त हो गई है आशा है अप्रैल की प्रस्तुति महबूब हसन रिज़वी के निर्देशन में होगी।

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

६ मार्च, अगली तैयारियाँ


6 मार्च को दो कहानियों को पाठ होना था। प्रेमचंद की 'गुल्ली-डंडा' और हरिशंकर परसाईं की 'भोलाराम का जीव'। चौपाल थोड़ा देर से शुरू हुई। कुछ लोग भारत गए हैं और कुछ किसी पिकनिक के कार्यक्रम के कारण नहीं आ सके। आज उपस्थित रहे प्रकाश सोनी, कौशिक साहा, महबूब हसन रिज़वी, मेनका, नीरू, शान, मैं और प्रवीण। बीते नाटक के विषय में कुछ चर्चा हुई। कौशिक ने 'गुल्ली-डंडा' का पाठ किया और प्रकाश ने 'भोलाराम का जीव' का। अगली प्रस्तुति के विषय में भी बात हुई।

रिज़वी साहब सआदत हसन मंटो का नाटक 'बीच मँझधार में' करना चाहते हैं। उसके कुछ हिस्से पढ़े गए और पात्रों के चयन के विषय में कुछ बातचीत हुई। हाँ 26 फ़रवरी की प्रस्तुति से प्रभावित होकर इस बार एक नए मेहमान भी आए थे उनसे नाम पूछना याद नहीं रहा। वे मुंबई में थियेटर की दुनिया से बरसों जुड़े रहे हैं। शायद अगली बार विस्तृत बात करने का अवसर मिलेगा। यों तो शायद नीरू और श्याम भी एक साल बाद आए आज चौपाल में। एक फ़ोटो लिया था, यहाँ प्रस्तुत है। फोटो में प्रवीण, नीरू और मेरे सिवा सभी दिखाई दे रहे हैं।