आज की चौपाल में होली मनाई जानी थी। सबसे पहले प्रकाश दिखाई पड़े दारा के साथ, सफेद कामदार कुर्ता, हाथ में जलेबियाँ, वाह वाह आज तो सबको जोश आना ही था। उन्होंने इकट्ठी की थी कुछ ज़बरदस्त होली सामग्री। डॉ. उपाध्याय के झोले में भी बैकअप की तरह हमेशा कुछ न कुछ होता है। आज पढ़ी गईं दीपक गुप्ता की व्यंग्य कविताएँ, इला प्रसाद की कहानी, राजेन्द्र त्यागी का व्यंग्य और मेरी कविता - रंग।
6-7 लोग ही आए थे पर हमने पाठ का कार्यक्रम शुरू कर दिया। नाटक का रिहर्सल करने वाले अक्सर देर से आते हैं। दुबई से आने वालों को भी कभी कभी देर हो जाती है। राजेन्द्र त्यागी का व्यंग्य डॉ.शैलेष उपाध्याय ने पढ़ा, दीपक गुप्ता की कंप्यूटर से संबंधित कविता मूफ़ी ने और राजनीति एक बस प्रकाश ने पढ़ी। सबीहा ने सतपाल ख़याल और संजय विद्रोही की होली से संबंधित ग़ज़लें पढ़ीं। इसके अतिरिक्त कुछ पंचदार टुकड़ों- दारा का 'मैं मुन्नी के बिना नहीं जी सकता', मूफ़ी का 'येस येस नो नो' और महबूब हसन रिज़वी का 'भाइयों और बहनों' की प्रस्तुति प्रभावशाली रही।
आज के कार्यक्रम का विशेष आकर्षण गल्फ़ एक्सप्रेस के रिपोर्टर का आगमन रहा। वे पूरे कार्यक्रम में मुख्य अतिथि की तरह छाए रहे। फोटोग्राफ़र देखकर किसका मन फ़ोटो खिंचाने का नहीं करता बस सब आ गए ग्रुप फोटो की मुद्रा में। इस बार आज की जमघट के सभी चेहरे एक साथ आ गए। न किसी की पीठ और न कोई छूटा। ऊपर की फ़ोटो, में बाएँ से- बैठे हुए प्रेस रिपोर्टर, शांति, प्रवीण, मैं, मेनका, मूफ़ी, इरफ़ान और एक नया सदस्य जिसका नाम पूछना रह गया। खड़े हुए बाएँ से- एजाज़, दारा, मिलिंद तिखे, प्रकाश, सबीहा, डॉ.उपाध्याय, रिज़वी साहब, अश्विन और मीर।
फोटो सेशन के बाद मैं चाय के लिए अंदर आई और रिपोर्टर साहब बिना चाय पिए नौ दो ग्यारह, प्रेस की ओर रवाना हो गए। कुल मिलाकर यह कि रिपोर्टर की फोटो तो मिली लेकिन उन पर कोई रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकी। चाय के बाद मिलिंद तिखे के नाटक 'राई का पहाड़' पढ़ा गया। इस माह की मंच-प्रस्तुति कुछ कारणों से निरस्त हो गई है आशा है अप्रैल की प्रस्तुति महबूब हसन रिज़वी के निर्देशन में होगी।
बढिया। थोड़ा रंग-उंग भी लगना चाहिये था जी!
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