यह सप्ताह कुछ विशेष समस्याओं के सुलझाने का था। जिस थियेटर में हम लगातार बुकिंग कर रहे हैं उसका प्रबंधन बदल गया है और अब चूँकि टेक्निकल स्टाफ़ का समय सुबह १० से ५ बजे तक का ही है, शाम को शो करने के हमें तकनीकी सहयोग के ओवर टाइम के पैसे अपने पास से देने होंगे। ओवर टाइम का मूल्य उतना ही है जितना एक दिन की थियेटर बुकिंग का। कुल मिलाकर यह कि शाम को शो करने के लिए अब हमें दुगना खर्च करना होगा। इस सबसे निबटने के सबने मिलकर दो तरीके खोजे हैं। ११ वाले शो की तारीख बढ़ाकर धनस्रोतों को बेहतर किया जाय और आगे की प्रस्तुतियों के लिए निमंत्रण-पत्र बंद कर दिए जाएँ। कुछ और भी विचार हैं। पर फिलहाल दो नाटक तैयार हैं 'हम तुम' और 'गेंदा फूल' (या गेंडाफ़ूल)। इन्हें अब ११ जून के स्थान पर १८ जून को मंचित होना है। आशा है तबतक सारी व्यवस्था हो जाएगी। पोस्टर तैयार हैं निमंत्रण पत्र का डिज़ाइन भी बन गया है। अच्छा है छपकर नहीं आ गया तिथि को बदलना जो है।
आज की चौपाल में कम लोग थे- रागिनी, मेनका, शांति, प्रकाश और कौशिक। दो नए लोग पहली बार आए थे। मनोज पाटिल और उनकी पत्नी बिंदु पाटिल। दोनों मराठी नाटकों के क्षेत्र में सक्रिय और अनुभवी हैं। ये ऐसे दंपत्ति हैं जो पति-पत्नी दोनों ही नाटकों के क्षेत्र में हैं। ऐसा काफ़ी कम देखने में आता है। चौपाल के कार्यक्रम का प्रारंभ अशोक चक्रधर के व्यंग्य जय हो की जयजयकार से शुरू हुआ जिसे कौशिक साहा ने पढ़ा, इसके बाद अनूप शुक्ला का व्यंग्य 'होना चियरबालाओं का' को प्रकाश सोनी ने पढ़ा। फिर खजूर में अटका का पहला अंक मिलजुलकर पढ़ा गया। शायद इसका मंचन सितंबर में होगा। प्रवीण जी का कैमरा आज जवाब दे गया इसलिए इस बार की कोई फ़ोटो नहीं हो पाई। इस बार चित्र के स्थान पर प्रस्तुत हैं 'हम तुम' और 'गेंदा फूल' के पोस्टर।
पूर्णिमा जी,
जवाब देंहटाएंचौपाल का चिट्ठा प्रस्तुतीकरण मुझे वाकई अच्छा लगता है,
विस्तृत जानकारी रहती है.
लोग भी जुड़ रहे हैं , आपके प्रयास वन्दनीय तो हैं ही. बस मेरे मन में आया कि यदि आप सदस्यों द्बारा पढ़े गए आलेख , रचनाएँ या सुझाव भी आंशिक रूप से शामिल करें तो सभी को अच्छा लगेगा.
- विजय