गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

४ दिसंबर, उजालों से छिटका सूरज


इस सप्ताह चौपाल का विषय था- नाट्य-पाठ। नाटक का नाम - "उजालों से छिटका सूरज" यह नाटक रोबर्ट एन्डरसन के नाटक टी एंड सिंपेथी का हिंदी रूपांतर है। रूपांतरकार हैं जितेन्द्र कपूर, लेकिन ऐसा अक्सर होता है कि जो विषय तय किया जाता है उस पर बात नहीं होती या हो पाती। चर्चा का प्रारंभ पिछले हफ्ते हुए गेंडाफूल के प्रदर्शन से हुआ। प्रति माह एक नाटक करने का जो नियम हमने बनाया था उसमें कभी कदा रुकावट आई है। इसको कैसे दूर किया जाय इस बात पर बात हुई। कुछ नाटक जब दुबारा होते हैं तब उनके प्रदर्शन में कुछ ढीलापन देखने में आता है। उसके क्या कारण हैं और उनको दूर कैसे किया जाय इस विषय पर भी बात हुई। पिछले दिनो जिस थियेटर को नियमित रूप से बुक करते थे उसका प्रबंधन बदलने के बाद उसका खर्च दुगने से भी ज्यादा हो गया है इसलिए नाटक करने के लिए किसी नयी जगह की तलाश भी अभी तक पूरी नहीं हुई है।

कुछ लोगों का विचार है कि हम होटलों की बार का प्रयोग इसके लिए कर सकते हैं। जहाँ मंच और बैठने की सुविधा तो होती ही है चाय की सुविधा भी मिल जाती है। प्रकाश और ध्वनि की वैसी व्यवस्था तो नही होती जैसी थियेटर में होती है। स्पाट लाइट नहीं होती, डिम की जाने वाली प्रकाश व्यवस्था भी नहीं होते। फेड आउट के स्थान पर स्विच ऑन-ऑफ करने पड़ते हैं। यहाँ इस प्रकार के होटल साफ सुथरे व्यवस्थित और आकर्षक होते हैं और दिन में बार खाली भी रहती है इस कारण कम खर्च में मिल जाती है। लेकिन कुछ लोगों की धारणा इनके विषय में ठीक नहीं है। उनका कहना है कि जब ताकतवर नीग्रो सुरक्षा गार्ड पार्किंग में आपकी कार को बाज़ दृष्टि से देखते हुए सख्ती से ठीक पार्किंग के आदेश देते हैं तो अच्छा नहीं लगता। खैर देखते हैं सबका निर्णय क्या होता है और काम आगे कैसे बढ़ता है। हमने प्रति सप्ताह चौपाल में एक 5 से 10 मिनट की प्रस्तुति का निर्णय भी लिया है। अगली बार डॉ.उपाध्याय शरद जोशी का एक व्यंग्य प्रस्तुत करेंगे। देखते हैं यह प्रयोग कितना रचनात्मक सिद्ध होता है। आज आने वालों के चित्र दाहिनी ओर हैं। सभी पुराने बलॉग पढ़नेवाले साथी इन्हें अब तक ठीक से पहचनाने लगे हैं फिर भी सुविधा के लिए बाएँ से प्रकाश सोनी, डॉ.शैलेष उपाध्याय, मैं, मेनका और कौशिक साहा। फ़ोटो प्रवीण जी ने लिया है।

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