शनिवार, 29 अगस्त 2009

२८ अगस्त, बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद चौपाल आज फिर लगी। उपस्थित लोगों में थे प्रकाश, डॉ. उपाध्याय, सबीहा, मिलिंद तिखे, प्रवीण जी और मैं। थोड़ी देर बात अश्विनी भी हमारे साथ आ जुड़े। बातचीत का विशेष मुद्दा आने वाली प्रस्तुतियाँ बना रहा। हम 2 अक्तूबर को एक मेगा कार्यक्रम की योजना बना रहे थे। बड़ा थियेटर भी बुक किया था। पर लोगों की अनुपस्थिति, विदेश यात्राएँ और अभी तक इस परियोजना पर काम शुरू न होने के कारण इस बुकिंग को रद्द करने पर सबकी सहमति रही। इस बीच कुछ नई मगर छोटी परियोजनाओं की बात हुई। हालाँकि कुछ निश्चित तौर पर तय नहीं हुआ। सबीहा ने प्रेमचंद की कहानी इस्तीफ़ा का पाठ किया और डॉ. उपाध्याय ने मोहन राकेश की वारिस का। इस बहाने सबने अपने अपने अध्यापकों को भी याद कर लिया। मिलिंद तिखे ने 'अभिव्यक्ति कथा महोत्सव-2008' के सांत्वना पुरस्कारों में से एक प्राप्त किया है- अपनी कहानी - 'एक प्यार का पल हो' के लिए। उनको इसके लिए आज की चौपाल में सम्मानित किया गया। यह तय हुआ कि हम लोग अगली बार चौपाल में इस कहानी का पाठ करेंगे। सदा की तरह चाय हुई। एनडीटीवी के रवीश कुमार ने शुक्रवार चौपाल के विषय में जो रिव्यू हिंदुस्तान में लिखा है उसकी भी चर्चा हुई।

मौसम कुछ बेहतर मालूम होता है लेकिन मंदी के आसार बेहतर होते नज़र नहीं आते। अगर यही हाल रहा तो नाटक के प्रायोजकों को ढूँढना मुश्किल होगा। रोज़ रोज़ ढेरों कर्मचारियों की छँटनी और कंपनियों के बंद होने की खबरें अभी तक बंद नहीं हुई हैं। हिंदी नाटकों को किसी सरकारी या भारतीय सांस्कृतिक संस्था का सहयोग नहीं है। सच पूछा जाय तो यहाँ कोई दमदार भारतीय सांस्कृतिक संस्था है ही नहीं जो हिंदी साहित्य या नाटक को प्रोत्साहित कर सके। शायद इस ओर भी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। हमारे सदस्य दिलीप परांजपे के घर पर गणपति बप्पा की स्थापना हुई है। सब आरती और विसर्जन की तैयारियों में लगे हैं। अगली चौपाल में गणपति की कुछ रोचक कथाएँ भी सुनेंगे। इस बार उपस्थिति बहुत कम रही थी। आशा है अगली बार काफ़ी लोग मिलेंगे। साथ के चित्र में बाएँ से मिलिंद तिखे, सबीहा मज़गाँवकर, अश्विनी, प्रकाश सोनी, डॉ. शैलेष उपाध्याय और मैं। फोटो प्रवीण जी ने खींचा है। ऊपर के पहले चित्र के समय अश्विनि अनुपस्थित थे।

1 टिप्पणी:

  1. अच्छा लगता है चौपाल में , मानसिक रूप से(भी) उपस्थित होना।
    अच्छा लगता है यह देख- पढ़ -सुन कर कि कुछ बहुत अपने लोग शब्द -भाव -लय की गरिमा किस खूबी से बनाए हुए हैं।
    अच्छा लगता है साहित्य सागर के एक सुदूर छोर से इसक बहु--रंग-रूप को निहारना।
    बहुत अच्छा लगता है।

    सस्नेह
    प्रवीण पंडित

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