शुक्रवार, 2 जनवरी 2009

२ जनवरी, साल की पहली गोष्ठी


शुक्रवार चौपाल पर आज पठन-पाठन का विषय था अशोक चक्रधर की कविताएँ। समूह में सदस्यों की उपस्थित कम रही। कुछ नए साल के उत्सव की थकान और कुछ मुहर्रम के वातावरण के कारण। कविताओं का पठन पाठन सबीहा मज़गाँवकर, प्रकाश सोनी, कौशिक साहा, डॉ. शैलेष उपाध्याय और मैंने किया। इसके बाद दस्तक का रिहर्सल हुआ। यह एक घंटे चलने वाला नाटक है जिसे हम थियेटरवाला के बैनर तले 9 जनवरी को दुबई में वर्सिलीज़ होटल में मंचित करने जा रहे हैं। (चित्र में बायीं ओर प्रकाश सोनी और दाहिनी ओर कौशिक साहा नाटकीय मुद्रा में) यह कार्यक्रम शारजाह के सहज मंदिर में होता है इसलिए यहाँ कोई जूते पहने नहीं दिखाई देगा।


शुक्रवार चौपाल शारजाह संयुक्त अरब इमारात में प्रति शुक्रवार सुबह 10:30 से 12:30 बजे तक चलने वाली साप्ताहिक गोष्ठी है। इसका प्रारंभ सन 2007 में मई माह के अंतिम शुक्रवार को हुआ था। विशेष रूप से अली भाई और प्रकाश के प्रयत्नों से। अली भाई यानी मुहम्मद अली जो इमारात की दुनिया में अपनी आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। वे यहाँ रेडियो और विज्ञापन का जाना माना नाम हैं। प्रकाश यानी ओमप्रकाश सोनी, हैं तो प्रकाशन के व्यवसाय में पर उनकी अभिनय यात्रा मुंबई में नादिरा बब्बर जैसी प्रतिभावान निर्देशक के साथ शुरू हुई। वे उनके बेगमजान जैसे लोकप्रिय नाटकों में अभिनय कर चुके हैं और पिछले लगभग पाँच बरसों से शारजाह में हैं। इस गोष्ठी में अनेक नाटक समूहों के प्रतिनिधि, साहित्य व रंगकर्मी भाग लेते हैं। नृत्य अभिनय और साहित्य की कार्यशालाएँ होती हैं और शारजाह पधारे विशिष्ट लोगों से मिलने का सौभाग्य भी हमें मिलता है।


डॉ.शैलेश उपाध्याय और सबीहा मज़गांवकर इस गोष्ठी का नियमित हिस्सा हैं। डॉ उपाध्याय अभिनय और साहित्य में रुचि रखते हैं। सबीहा हम सबमें छोटी है लेकिन वह सबकी बॉस है यानी हमारे सब कामों की क्रियेटिव डायरेक्टर। नाटकों के रिहर्सल की तिथियाँ और स्थान तय करना, कलाकारों को संयोजित करना और हज़ारों कामों को सफलता पूर्वक संभालना उसके बाएँ हाथ का काम है। इसके अतिरिक्त प्रतिबिम्ब के महबूब हसन रिज़वी और डेट के अनुज सक्सेना भी इस गोष्ठी में लगभग नियमित रूप से आते रहे हैं। परदेस के व्यस्त जीवन में सब लोग इस प्रकार की गंभीर गोष्ठियों के लिए समय निकाल सकें यह संभव नहीं फिर भी आमतौर पर गोष्ठी में उपस्थित लोगों की संख्या 10 के आसपास रहती है। जब नाटकों के अभ्यास और कार्यशालाएँ होती हैं तो स्वाभाविक रूप से इनकी संख्या बढ़ जाती है और लगभग 20-25 तक हो जाती है।

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